~~ श्री रमण वाणी ~~
18-01-2014.
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18-01-2014.
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..यहीं पर अलगम्माल ने अपने पुत्र के दर्शन किए । नेल्लियाप्पियर से समाचार मिलने के बाद उसने क्रिसमस की छुट्टियों की प्रतीक्षा की, क्योंकि उन्हीं दिनों उसका सबसे बड़ा लड़का उसके साथ चल सकता था । इसके बाद उसने उसके साथ तिरुवन्नामलाई के लिए प्रस्थान किया । उसने वेंकटरमण के कृश शरीर और जटाओं के बावजूद उसे तत्काल पहचान लिया । पुत्र-स्नेह से उसका हृदय करुणार्द्र हो उठा और उसने उससे घर वापस लौटने की प्रार्थना की, परन्तु वह अविचलित बैठा रहा, न उसमे कोई जवाब दिया और न यह प्रदर्शित किया कि उसने कुछ सुना है । प्रतिदिन उसकी माँ उसके खाने के लिए स्वादिष्ट पदार्थ ले आती, उससे अनुनय-विनय करती, उसकी भर्त्सना भी करती, परन्तु उस पर कोई असर न होता । एक दिन, अपने प्रति उसके नितान्त उपेक्षा भाव को देखकर उसकी आँखों में आँसू छलछला आये । उसने तब भी कोई जवाब न दिया । कहीं उसकी सहानुभूति न फूट पड़े और उसकी माँ को झूठी आशा न बँधे, इसलिए वह उठ खड़ा हुआ और दूर चला गया । अगले दिन उसने वहाँ एकत्रित भक्तों की सहानुभूति प्राप्त की. अपनी दुःख-गाथा उनसे कह सुनायी और हस्तक्षेप की प्रार्थना की । भक्तों में से एक पचियप्पा पिल्लई नामक व्यक्ति ने स्वामी से कहा,
"आपकी माँ रो रही है और अनुनय-विनय कर रही है; आप उसे कम से कम ’हाँ’ या ’न’ में कोई जवाब तो दें । आपको अपना मौनव्रत तोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं; ये रहे कागज और पेन्सिल, जो कुछ आपको लिखना हो, लिख दें ।"
स्वामी ने कागज-पेन्सिल ले लिया और सर्वथा अवैयक्तिक भाषा में लिखा :
"विधाता जीवों के प्रारब्ध-कर्मानुसार उनके भाग्यों का नियन्त्रण करता है । आप कितनी ही कोशिश कर लें, जो कुछ भाग्य में होना लिखा है, वह होकर रहेगा, भले ही आप इसे रोकने की कितनी ही कोशिश क्यों न कर लें । यह निश्चित है, इसलिए सर्वोत्तम मार्ग शान्त रहने का है ।"
(आर्थर ऑस्बोर्न लिखित श्री रमण महर्षि की जीवनी, हिन्दी अनुवाद, अध्याय ५ ’वापसी का प्रश्न’ से साभार उद्धृत)
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