बुधवार, 26 जनवरी 2022

स्वर्ग का साम्राज्य

सन्दर्भ :

श्रीरमण महर्षि से बातचीत,

21 मार्च, 1938,

से साभार उद्धृत

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476. ईसाई मिशनरी डॉ.सटेनले जोन्स महर्षि के दर्शनार्थ आये। डॉ. जोन्स पुस्तकें लिखते हैं तथा भाषण देते हैं। उत्तर भारत में दो आश्रम उनके नियन्त्रण में हैं। एक अन्य सज्जन तथा दो महिलाएँ भी उनके साथ आये। वर्तमान में वे एक पुस्तक :

"On The Indian Road"

लिखने में संलग्न हैं तथा इस प्रयोजनार्थ भारत की आध्यात्मिक विभूतियों से सम्पर्क कर विचार-संग्रह कर रहे हैं। उन्होंने भारतीय ज्ञानियों की साधना-पद्धति एवं उनके दिव्यानुभव के तत्व के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रकट की। अतः उन्होंने इस विषय में अनेक प्रश्न पूछे ।

(प्रश्नोत्तर का यह संक्षिप्त सारांश मात्र है।)

भक्त : आपकी साधना क्या है ? साध्य क्या है ? और प्रगति के किस सोपान तक आप पहुँचे हैं ?

महर्षि :  साध्य सबका एक है। पहले यह बताओ तुम्हें साध्य की तलाश क्यों है ? वर्तमान स्थिति से तुम्हें सन्तोष क्यों नहीं है ?

भक्त : तब क्या लक्ष्य जैसी कोई वस्तु नहीं ?

महर्षि : तात्पर्य यह नहीं है। साध्य के लिए व्यग्रता क्यों होती है? इस प्रति-प्रश्न का तुम्हें ही उत्तर देना होगा ।

भक्त : सम्बन्धित विषयों पर मेरे अपने विचार हैं । मेरी जिज्ञासा तो महर्षि के इस सम्बन्ध में विचार जानने की है ।

महर्षि : समाधान के लिए महर्षि को कोई संशय ही नहीं है ।

भक्त : मेरे मत में साध्य है -- निम्नस्तरीय मन द्वारा उच्चस्तरीय मन की ज्ञानोपलब्धि, जिससे इसी पृथ्वी पर स्वर्ग का साम्राज्य स्थिर रह सके। निम्नस्तरीय मन अपूर्ण है तथा उच्चस्तरीय मन की उपलब्धि से ही यह पूर्णता को प्राप्त होता है।

महर्षि : आशय हुआ कि आपके मत में निम्नस्तरीय मन है जो अपूर्ण है तथा पूर्णता प्राप्त करने के लिए वह उच्चस्तरीय मन की उपलब्धि का आकांक्षी है। क्या यह निम्नस्तरीय मन, उच्चस्तरीय मन से पृथक् है?  क्या यह उच्च मन से स्वतंत्र है ?

भक्त : स्वर्गीय साम्राज्य को पृथ्वी पर यीशू क्राइस्ट लाया। मेरे मत से यीशू ही साक्षात् स्वर्गीय साम्राज्य है। मेरी आकांक्षा है कि जन-जन यह अनुभव प्राप्त करे। ईसा ने कहा : 

"मैं अन्य व्यक्तियों की भूख से क्षुधा ग्रस्त हूँ," 

तथा इसी प्रकार अन्य कथन किये। सुख-दुःख की सामूहिक अनुभूति ही स्वर्गीय साम्राज्य है। इस साम्राज्य के साधारणी-करण विश्वव्यापी प्रसार का परिणाम होगा कि जन-जन प्रत्येक के सुख-दुःख में सहभागी होगा।

महर्षि : तुम निम्न एवं उच्च मन, सुख एवं दुःख के भेद का निरूपण करते हो।  सुषुप्ति में इन भेदों का क्या होता है?

भक्त : मैं तो पूर्ण जाग्रत रहने का आकांक्षी हूँ।

महर्षि : तब क्या अभी तुम्हारी पूर्ण जाग्रत अवस्था है? ऐसा नहीं है। यह भी तुम्हारी चिरकालिक निद्रा का स्वप्न मात्र है। सभी निद्राविष्ट हैं तथा जगत्, विविध पदार्थो एवं क्रियाओं के स्वप्न देख रहे हैं। 

भक्त : यह सब वेदान्त है। मेरे लिए इसकी कोई सार्थकता नहीं । साक्षात् भेद कल्पित नहीं है। उनकी निश्चयात्मक सत्ता है। तो भी यह बतायें, कि यह पूर्ण जाग्रति क्या है? क्या महर्षि अपने अनुभव से उसका निरूपण करेंगे? 

वास्तविक जाग्रति जाग्रति, स्वप्न तथा सुषुप्ति से अतीत है ।

भक्त : मैं पूर्णतया जाग्रत हूँ, और यह जानता हूँ कि मैं सुषुप्त नहीं हूँ।

महर्षि : यथार्थ जाग्रति भेदावस्था की भूमिका से अतीत है। 

भक्त : फिर जगत् की क्या अवस्था हुई? 

महर्षि : जगत् क्या तुम्हारे समक्ष आकर यह घोषणा करता है कि "मेरी सत्ता है?"

भक्त : नहीं, किन्तु संसारी जन कहते हैं कि जगत् को आत्मिक, सामाजिक तथा नैतिक उत्थान की आवश्यकता है। 

महर्षि : जगत् तथा जगतस्थ मनुष्यों को तुम्हीं तो देखते हो।  ये सब तुम्हारे विचार ही हैं। जगत् क्या तुमसे पृथक् रह सकता है? भक्त : प्रेम के माध्यम से मैं इसमें प्रविष्ट होता हूँ। 

क्या इस प्रकार प्रविष्ट होने से पूर्व तुम पृथक् दीखते हो?

भक्त : मैं जगत् का ही अंग हूँ तथापि पृथक् हूँ। मैं महर्षि से जिज्ञासा करने तथा उन्हें श्रवण करने को उपस्थित हुआ हूँ। महर्षि मुझसे प्रश्न क्यों करते हैं?

महर्षि : महर्षि उत्तर दे चुके। उत्तर यह है कि यथार्थ जाग्रति में भेद का निवास नहीं है।

भक्त : क्या इस प्रकार की साक्षात् अनुभूति समग्र जगत् को उपलब्ध करायी जा सकती है?

महर्षि : इस अनुभूति में भेद है ही कहाँ? न वहाँ व्यक्तियों का निवास है। 

भक्त : आप क्या लक्ष्य प्राप्त कर चुके? 

महर्षि : लक्ष्य न तो आत्मा से पृथक् है, न नवीन रूप से प्राप्त होने का विषय है। यदि ऐसा होता तो यह लक्ष्य स्थायी तथा नित्य न होता। जो नवीन रूप से प्रकट हो वह लुप्त भी अवश्य होगा। लक्ष्य तो नित्य तथा अन्तस्थ ही हो सकता है। अपने अन्तर में ही उसकी उपलब्धि करो।

भक्त : मैं आपके अनुभव के सम्बन्ध में जानना चाहता हूँ ।

महर्षि : महर्षि ज्ञान का आकांक्षी नहीं है। प्रश्नकर्ता के निमित्त इस प्रश्न की कोई सार्थकता नहीं । मैं आत्मोपलब्धि कर सका अथवा नहीं, इससे प्रश्नकर्ता पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है? 

भक्त : मन्तव्य यह नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के स्वयं के अनुभव का मानवीय मूल्य है तथा अन्य व्यक्ति भी इसके सहभागी हो सकते हैं।

महर्षि : समस्या का समाधान प्रश्नकर्ता को ही करना होगा। जिज्ञासा स्वयं के प्रति ही करना श्रेष्ठ है। 

भक्त : प्रश्न का समाधान मुझे ज्ञात है।

महर्षि : हम भी तो सुनें।

भक्त : बीस वर्ष पूर्व मुझे स्वर्गीय साम्राज्य का दर्शन कराया गया था। यह ईश्वरीय अनुकम्पा से ही सम्भव हुआ। मैंने इसके निमित्त कोई प्रयास नहीं किया था। मुझे आनन्द की प्राप्ति हुई। मेरा लक्ष्य है इसका साधारणी-करण, नैतिकी-करण तथा सामाजी-करण। मेरी यह भी आकांक्षा है कि महर्षि के दिव्यानुभव का ज्ञान प्राप्त करूँ।

श्रीमती जिनराजदास ने कोमल स्वर में टोका : हम सब का मत है कि महर्षि ने पृथ्वी पर स्वर्ग के साम्राज्य का अवतरण किया है। महर्षि की आत्मोपलब्धि के सम्बन्ध में आप जानने का आग्रह क्यों करते हैं? साधना तथा लक्ष्य प्राप्ति तो आपको करनी है।

प्रश्नकर्ता ने उनकी बात सुन कुछ तर्क किया तथा पुनः महर्षि से कुछ प्रश्न किये। एक या दो लघु प्रश्नों के उपरान्त मेजर चैडविक ने दृढ वाणी में कहा :

"स्वर्ग का साम्राज्य तुम्हारे अन्तर्गत है,"

ऐसा बाइबिल का कथन है ।

भक्त : मैं इसका साक्षात्कार किस प्रकार करूँ?

मेजर चैडविक : आप महर्षि द्वारा अपने निमित्त यह साक्षात्कार क्यों कराना चाहते हैं?

भक्त : मैं ऐसा नहीं चाहता। 

मेजर चैडविक : "साम्राज्य तुम्हारे स्वयं के अन्तर्गत है" आपको इसका साक्षात्कार करना चाहिए। 

भक्त : उन्हीं के अन्तर्गत है जो इसके प्रति उन्मुख होते हैं।

मेजर चैडविक : बाइबिल कहती है : "तुम्हारे अन्तर्गत है," तथा बाइबिल कोई शर्त नहीं लगती।

प्रश्नकर्ता ने अनुभव किया कि वार्ता बहुत लम्बी हो चुकी अतः वे महर्षि तथा अन्य व्यक्तियों को धन्यवाद दे विदा हुए। 

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सोमवार, 3 जनवरी 2022

सद्-विद्या

Truth Revealed. 

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Talks with Sri Ramana Maharshi No. 567,

(03-11-1938 to 06-11-1938)

श्री रमण महर्षि से बातचीत क्रमांक 567,

(दिनांक 3 से 6 नवंबर 1938)

'सद्-विद्या' के प्रारंभिक छन्दों की श्री भगवान् ने श्री मैकाइवर के समक्ष इस प्रकार व्याख्या की :

1. प्रथम छन्द मंगलाचरण है। इस छन्द के विषय का निरूपण यहाँ क्यों किया गया है? क्या ज्ञान सत्ता से पृथक् हो सकता है? सत्ता ही केन्द्र-बिन्दु है। इस स्थिति में परमसत्ता का ध्यान अथवा गुणानुवाद कैसे किस प्रकार संभव है? शुद्ध आत्मरूप विराजना ही मंगलाचरण है। यहाँ ज्ञान-मार्ग के अनुसार निर्गुण-ब्रह्म का प्रतिपादन किया गया है। 

2. द्वितीय छन्द सगुण-ब्रह्म का गुणानुवाद है। पूर्ववर्ती छन्द में एक आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित रहने का उल्लेख था, - वर्तमान छन्द में परमेश्वर को आत्मा समर्पण करने का उल्लेख है। 

द्वितीय छन्द में :

(1) पाठक का पात्रत्व,

(2) विषय-वस्तु, 

(3) इनका सम्बन्ध तथा

(4) परिणाम का इंगित है। सुपात्र पाठक सुयोग्य होना चाहिए। योग्यता का प्रमाण सांसारिक वस्तुओं से वैराग्य एवं मुमुक्षत्व है।

(अनुबन्ध-चतुष्टय)

सब को ज्ञात है कि कभी न कभी मृत्यु अवश्यम्भावी है, परन्तु वे इस पर विचार नहीं करते। मृत्यु का भय सभी को है, किन्तु यह भय क्षणिक है। मृत्यु का भय क्यों? कारण है देहात्म-बुद्धि। देहपात तथा अन्ततः इसकी दाहक्रिया किसी को भान है। मृत्यु से देहनाश हो जाता है यह सभी को पूर्णतया ज्ञात है। देहात्म-बुद्धि के कारण मृत्यु से निजत्व का विनाश मानकर भय की अनुभूति होती है। जन्म-मरण देह के ही हैं, तथापि इन्हें आत्मा पर आरोपित कर यह भ्रान्ति उत्पन्न कर ली जाती है कि जन्म अथवा मरण आत्मा का होता है। 

जन्म-मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के प्रयास में परमेश्वर से रक्षा की आकांक्षा की जाती है। यही ईश्वर में श्रद्धा तथा भक्ति का मूल है। ईश्वर की आराधना का मार्ग क्या है? प्राणी दुर्बल है तथा सृष्टिकर्ता सर्वशक्तिमान। उससे सम्पर्क किस प्रकार करें? प्राणी को एक ही मार्ग उपलब्ध है, ईश्वर के प्रति समर्पण का -- प्रपत्ति -- का मार्ग। अस्तु, प्राणी ईश्वर को आत्म-समर्पण कर देता है। समर्पण का अर्थ है स्वयं तथा सर्व पदार्थों को करुणामय की सेवा में अर्पित कर देना। फिर मनुष्य के पास क्या अवशिष्ट रहा? कुछ भी नहीं -- न तो स्वयं,  न कोई सम्पत्ति। जन्म-मृत्यु के विषय, देह को ईश्वर को समर्पित कर देने के पश्चात् मनुष्य के लिए इस निमित्त चिन्तनीय कुछ भी नहीं रहता। फिर जन्म-मृत्यु भयभीत नहीं कर सकते। भय का कारण देह थी जिस पर स्वामित्व उसका स्वयं का नहीं रहा, फिर भय कैसा? अथवा पृथकता रही ही कहाँ कि भीति हो? 

इस प्रकार आत्मा साक्षात्कार होकर आनन्द की प्राप्ति होती है। यह है विषय-वस्तु -- दुःख-विमुक्ति तथा आनन्दोपलब्धि। यही परम उपलब्धि है। प्रपत्ति तथा आनन्द को पर्याय मानो। यह हुआ आपसी सम्बन्ध।

परिणाम है विषय-वस्तु का मनन करना एवं सर्वदा, यहीं और अभी सुलभ ज्ञान की उपलब्धि। छन्द का समापन 'अमर जनों' से हुआ है।

3. पञ्चेन्द्रिय से आशय तन्मात्रों (तन्मात्राओं) से है यथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध। इनके अनुपात-भेद से समस्त जगत् की सृष्टि होती है। त्रिगुणानुसार इनके निम्न भेद होते हैं :

तमस् द्वारा स्थूल तत्व,

रजस् द्वारा पदार्थ ज्ञान के साधन, 

सत्व द्वारा विविध इन्द्रियगोचर ज्ञान,

तमस् द्वारा स्थूल पदार्थ अर्थात् जगत्,

रजस् द्वारा प्राण तथा कर्मेन्द्रियाँ,

सत्व द्वारा ज्ञानेन्द्रियाँ।

कर्मेन्द्रिय समूह पकड़ने, चलने, बोलने, मल परित्याग करने तथा सन्तानोत्पादन के अंग हैं। 

घन्टी की ध्वनि पर विचार कर देखो : ध्वनि श्रवण से सम्बन्धित है, घन्टी स्थूल वस्तु अथवा तमोगुण का विशिष्ट रूप है। राजसिक तन्मात्र ध्वनि-कम्पन के रूप में परिवर्तित हो, घन्टी के चारों ओर विस्तीर्ण हो जाती हैं तथा इसके पश्चात् आकाश रूप में श्रोत्र से सम्बन्ध स्थापित कर सुनी जाती हैं। इसे ध्वनि के रूप में पहचानने वाला ज्ञान सत्व तन्मात्र है।

अर्थात् ध्वनि (शब्द) आकाश तन्मात्र है। 

इसी प्रकार अन्य ज्ञानेन्द्रियों को जानो :

स्पर्श -- वायु तन्मात्र, 

रूप -- तेजस् तन्मात्र,

स्वाद -- आप तन्मात्र,

गन्ध -- पृथ्वी तन्मात्र।

तन्मात्रों / तन्मात्राओं को पदार्थ के सूक्ष्मतम परमाणु (smallest particle) मानना सही नहीं है, क्योंकि यह ज्ञान अपूर्ण हुआ। ये वस्तुतः समस्त जगत् के निर्माता तत्व शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध के सूक्ष्म रूप हैं। यह हुई जगत् की सृष्टि।

सम्यक् शब्दावलि के अभाव में विदेशी भाषाओं में इन भावों का निरूपण संभव नहीं। 

4. इस छन्द में कथन है कि एक बिन्दु पर सब सहमत हैं। वह क्या है? द्वैत तथा अद्वैत, ज्ञाता तथा ज्ञेय, जीव तथा ब्रह्म से अतीत। संक्षेप में समस्त भेदों से अतीत अवस्था। यहाँ अहंकार का अभाव है। प्रश्न है : इसकी उपलब्धि किस प्रकार से हो? इसबारे में कहा गया है -- जगत् के परित्याग द्वारा। यहाँ 'जगत्' से आशय है -- जगत् सम्बन्धी भाव। ऐसे भाव उत्पन्न न हों तो अहंकार उत्पन्न नहीं होता। न ज्ञाता होगा, न ज्ञेय। ऐसी है वह अवस्था। 

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टिप्पणी :

क्या तन्मात्र / तन्मात्राओं को क्वान्टम कहा जा सकता है? 

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