शनिवार, 16 जनवरी 2021

दृक्-दृश्य विवेक

 पिछली पोस्ट में उद्धृत श्लोक स्मृति की सहायता से लिखा था। 

मूल श्लोक में दूसरी पंक्ति इस प्रकार से है:

नात्मैव दृश्यो यदि का कथेशे,

स्वयं तदन्नीभवनं तदीक्षा।। 

इससे मिलती जुलती पंक्ति अन्यत्र इस प्रकार से  है :

दृग्दृश्यभेदात्किमयं द्विधात्मा,

स्वात्मैकतायां हि धियां न भेदः।। 

इससे तत्काल ही स्पष्ट हो जाता है कि

"The observer is the observed"

का क्या अभिप्राय हो सकता है। 

आत्म-दर्शन में दृक् और दृश्य दोनों साथ साथ ही विलुप्त / निःशेष हो जाते हैं । 

जिस प्रकार दृश्य (observed) एक प्रत्यय (notion) है,  उसी प्रकार दृक् (observer) भी एक प्रत्यय (notion) मात्र है। 

"प्रतीयते विधीयते इति प्रत्ययं।"

के अनुसार यद्यपि किसी प्रत्यय का व्यावहारिक सत्य के स्तर पर उपयोग है,  किंतु इससे वह परम सत्य का विकल्प नहीं हो सकता।

ब्रह्म की तरह आत्मा भी स्वगत, सजातीय तथा विजातीय इन तीनों भेदों से रहित है। क्या वह निद्रा जैसी अंधकारपूर्ण अवस्था है? 

स्पष्ट है कि निद्रा को पातञ्जल योगसूत्र में "वृत्ति" कहा गया है, 

जहाँ दृक्-दृश्य भेद पाया जाता है। 

इस प्रकार आत्मा अज्ञानमय या अंधकारपूर्ण अवस्था न होकर एकमेव अद्वितीय चित् (unique awareness) है।

इसी प्रकार आत्मा, 

सत् ( Undifferentiated Existence)

भी है। 

इसलिए इस पंक्ति को दूसरी रीति से "दृष्टा" के प्रयोग से इस प्रकार इंगित किया गया कि आत्मा को दृष्टा अर्थात् दृक् की तरह न ग्रहण किया जाए। 

।।ॐ तत् सत्।। 

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आगमोक्ति

आत्मानमीक्षेत परं प्रपश्येत्

इति आगमोक्तेः सुलभो न भावो। 

आत्मा न दृष्टा यदि का परेशे 

स्वयं तदन्नीभवनं तदीक्षा।। 

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वह पूछ रही थी कि "सद्दर्शनम्" के प्रथम 10 श्लोकों का सार क्या है। हाँ, वे परस्पर भिन्न हैं और प्रत्येक अपने आप में स्वतंत्र भी है, किंतु फिर भी वे सभी जिस समस्या का उल्लेख उपरोक्त श्लोक में किया गया है,  उसे समझने में सहायक हैं ।

आगम कहते हैं :

"आत्मा को देख (जान) लो, अर्थात् आत्मा का दर्शन कर लो,  तो ही परमात्मा का दर्शन हो सकता है ।"

यदि आत्मा को ही नहीं जाना तो ईश्वर (परमात्मा) को जानने का विचार भी कैसे किया जा सकता है? 

याद आई वह कथा, जिसमें एक मेंढक और साँप का उल्लेख है :

यदि साँप बड़ा है,  तो मेंढक को खा जाता है,  यदि मेंढक बड़ा तो साँप को। लेकिन दुर्भाग्यवश दोनों यदि बराबरी के हों, तो दोनों की स्थिति विकट हो जाती है। 

इसी प्रकार चूँकि आत्मा और परमात्मा न सिर्फ़ परस्पर समान, बल्कि एकमेव सत्यता ही हैं, इसलिए परमात्मा को जानना या देखना अपने आपको देखने / जानने के बाद ही संभव  है। इस प्रकार से न जाना जाए तो परमात्मा के संबंध में जाना हुआ सब कुछ "मानसिक ईक्षण" भर होकर रह जाता है । जैसा कि एक अन्य श्लोक में कहा गया है। 

याद आता है कठोपनिषद् का प्रसंग जिसमें परमात्मा यमराज के मुख से कहता है :

ब्राह्मण और क्षत्रिय भी मेरे लिए अन्न के समान हैं, और मृत्यु मानों "उपसेचन" (सब्ज़ी या चटनी इत्यादि) हैं ।

तात्पर्य यह कि परमात्मा का अन्न हो जाना ही उसमें विलीन हो जाने और उससे एकात्म तथा अभिन्न हो जाना है। 

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शुक्रवार, 15 जनवरी 2021

Online talks.

Talking about "सद्दर्शनम्" over phone.

Audio-calls.  

Earlier I dealt with, and had a thorough reading of the following texts completed so far. :

ईशावास्योपनिषद्, 

माण्डूक्य उपनिषद्

केनोपनिषद् 

कठोपनिषद् 

Also. 

Very much satisfied and happy.