सोमवार, 3 जनवरी 2022

सद्-विद्या

Truth Revealed. 

---------------------------

Talks with Sri Ramana Maharshi No. 567,

(03-11-1938 to 06-11-1938)

श्री रमण महर्षि से बातचीत क्रमांक 567,

(दिनांक 3 से 6 नवंबर 1938)

'सद्-विद्या' के प्रारंभिक छन्दों की श्री भगवान् ने श्री मैकाइवर के समक्ष इस प्रकार व्याख्या की :

1. प्रथम छन्द मंगलाचरण है। इस छन्द के विषय का निरूपण यहाँ क्यों किया गया है? क्या ज्ञान सत्ता से पृथक् हो सकता है? सत्ता ही केन्द्र-बिन्दु है। इस स्थिति में परमसत्ता का ध्यान अथवा गुणानुवाद कैसे किस प्रकार संभव है? शुद्ध आत्मरूप विराजना ही मंगलाचरण है। यहाँ ज्ञान-मार्ग के अनुसार निर्गुण-ब्रह्म का प्रतिपादन किया गया है। 

2. द्वितीय छन्द सगुण-ब्रह्म का गुणानुवाद है। पूर्ववर्ती छन्द में एक आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित रहने का उल्लेख था, - वर्तमान छन्द में परमेश्वर को आत्मा समर्पण करने का उल्लेख है। 

द्वितीय छन्द में :

(1) पाठक का पात्रत्व,

(2) विषय-वस्तु, 

(3) इनका सम्बन्ध तथा

(4) परिणाम का इंगित है। सुपात्र पाठक सुयोग्य होना चाहिए। योग्यता का प्रमाण सांसारिक वस्तुओं से वैराग्य एवं मुमुक्षत्व है।

(अनुबन्ध-चतुष्टय)

सब को ज्ञात है कि कभी न कभी मृत्यु अवश्यम्भावी है, परन्तु वे इस पर विचार नहीं करते। मृत्यु का भय सभी को है, किन्तु यह भय क्षणिक है। मृत्यु का भय क्यों? कारण है देहात्म-बुद्धि। देहपात तथा अन्ततः इसकी दाहक्रिया किसी को भान है। मृत्यु से देहनाश हो जाता है यह सभी को पूर्णतया ज्ञात है। देहात्म-बुद्धि के कारण मृत्यु से निजत्व का विनाश मानकर भय की अनुभूति होती है। जन्म-मरण देह के ही हैं, तथापि इन्हें आत्मा पर आरोपित कर यह भ्रान्ति उत्पन्न कर ली जाती है कि जन्म अथवा मरण आत्मा का होता है। 

जन्म-मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के प्रयास में परमेश्वर से रक्षा की आकांक्षा की जाती है। यही ईश्वर में श्रद्धा तथा भक्ति का मूल है। ईश्वर की आराधना का मार्ग क्या है? प्राणी दुर्बल है तथा सृष्टिकर्ता सर्वशक्तिमान। उससे सम्पर्क किस प्रकार करें? प्राणी को एक ही मार्ग उपलब्ध है, ईश्वर के प्रति समर्पण का -- प्रपत्ति -- का मार्ग। अस्तु, प्राणी ईश्वर को आत्म-समर्पण कर देता है। समर्पण का अर्थ है स्वयं तथा सर्व पदार्थों को करुणामय की सेवा में अर्पित कर देना। फिर मनुष्य के पास क्या अवशिष्ट रहा? कुछ भी नहीं -- न तो स्वयं,  न कोई सम्पत्ति। जन्म-मृत्यु के विषय, देह को ईश्वर को समर्पित कर देने के पश्चात् मनुष्य के लिए इस निमित्त चिन्तनीय कुछ भी नहीं रहता। फिर जन्म-मृत्यु भयभीत नहीं कर सकते। भय का कारण देह थी जिस पर स्वामित्व उसका स्वयं का नहीं रहा, फिर भय कैसा? अथवा पृथकता रही ही कहाँ कि भीति हो? 

इस प्रकार आत्मा साक्षात्कार होकर आनन्द की प्राप्ति होती है। यह है विषय-वस्तु -- दुःख-विमुक्ति तथा आनन्दोपलब्धि। यही परम उपलब्धि है। प्रपत्ति तथा आनन्द को पर्याय मानो। यह हुआ आपसी सम्बन्ध।

परिणाम है विषय-वस्तु का मनन करना एवं सर्वदा, यहीं और अभी सुलभ ज्ञान की उपलब्धि। छन्द का समापन 'अमर जनों' से हुआ है।

3. पञ्चेन्द्रिय से आशय तन्मात्रों (तन्मात्राओं) से है यथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध। इनके अनुपात-भेद से समस्त जगत् की सृष्टि होती है। त्रिगुणानुसार इनके निम्न भेद होते हैं :

तमस् द्वारा स्थूल तत्व,

रजस् द्वारा पदार्थ ज्ञान के साधन, 

सत्व द्वारा विविध इन्द्रियगोचर ज्ञान,

तमस् द्वारा स्थूल पदार्थ अर्थात् जगत्,

रजस् द्वारा प्राण तथा कर्मेन्द्रियाँ,

सत्व द्वारा ज्ञानेन्द्रियाँ।

कर्मेन्द्रिय समूह पकड़ने, चलने, बोलने, मल परित्याग करने तथा सन्तानोत्पादन के अंग हैं। 

घन्टी की ध्वनि पर विचार कर देखो : ध्वनि श्रवण से सम्बन्धित है, घन्टी स्थूल वस्तु अथवा तमोगुण का विशिष्ट रूप है। राजसिक तन्मात्र ध्वनि-कम्पन के रूप में परिवर्तित हो, घन्टी के चारों ओर विस्तीर्ण हो जाती हैं तथा इसके पश्चात् आकाश रूप में श्रोत्र से सम्बन्ध स्थापित कर सुनी जाती हैं। इसे ध्वनि के रूप में पहचानने वाला ज्ञान सत्व तन्मात्र है।

अर्थात् ध्वनि (शब्द) आकाश तन्मात्र है। 

इसी प्रकार अन्य ज्ञानेन्द्रियों को जानो :

स्पर्श -- वायु तन्मात्र, 

रूप -- तेजस् तन्मात्र,

स्वाद -- आप तन्मात्र,

गन्ध -- पृथ्वी तन्मात्र।

तन्मात्रों / तन्मात्राओं को पदार्थ के सूक्ष्मतम परमाणु (smallest particle) मानना सही नहीं है, क्योंकि यह ज्ञान अपूर्ण हुआ। ये वस्तुतः समस्त जगत् के निर्माता तत्व शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध के सूक्ष्म रूप हैं। यह हुई जगत् की सृष्टि।

सम्यक् शब्दावलि के अभाव में विदेशी भाषाओं में इन भावों का निरूपण संभव नहीं। 

4. इस छन्द में कथन है कि एक बिन्दु पर सब सहमत हैं। वह क्या है? द्वैत तथा अद्वैत, ज्ञाता तथा ज्ञेय, जीव तथा ब्रह्म से अतीत। संक्षेप में समस्त भेदों से अतीत अवस्था। यहाँ अहंकार का अभाव है। प्रश्न है : इसकी उपलब्धि किस प्रकार से हो? इसबारे में कहा गया है -- जगत् के परित्याग द्वारा। यहाँ 'जगत्' से आशय है -- जगत् सम्बन्धी भाव। ऐसे भाव उत्पन्न न हों तो अहंकार उत्पन्न नहीं होता। न ज्ञाता होगा, न ज्ञेय। ऐसी है वह अवस्था। 

***

टिप्पणी :

क्या तन्मात्र / तन्मात्राओं को क्वान्टम कहा जा सकता है? 

***


कोई टिप्पणी नहीं: