स्कन्द-पुराण से
(अरुणाचल माहात्म्य खण्ड)
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श्री सूतजी कहते हैं --
इस प्रकार श्रद्धा और भक्ति के साथ प्रणाम और स्तुति करने वाले ब्रह्मा और भगवान् विष्णु के ऊपर भगवान् शंकर बहुत प्रसन्न हुए तथा उस तेजोमय स्तम्भ से गौर वर्ण, नीलकण्ठ पुरुष रूप से प्रकट हुए। उनके मस्तक पर अर्धचन्द्र का मुकुट शोभा पा रहा था। हाथों में परशु, बालमृग तथा अभय और विश्राम की मुद्राएँ थीं। वे ब्रह्मा और विष्णु से बोले :
'मुझमें चित्त लगानेवाले तुम दोनों की भक्ति से मैं बहुत सन्तुष्ट हूँ। तुम मुझसे कोई वर माँगो।'
भगवान् शंकर के इस वचन से उन दोनों को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने हाथ जोड़कर अपना-अपना पृथक् प्रयोजन निवेदन किया और कभी परास्त न होनेवाले त्रिभुवन-विधाता भगवान् शिव का वैदिक मन्त्रों से स्तवन करते हुए इस प्रकार कहा :
'भगवन्! आपके इस दिव्य रूप को हम नमस्कार करते हैं। आप सतत वर देनेवाले ईश्वर हैं, तेजोमय हैं, देवताओं में सबसे श्रेष्ठ महादेव हैं तथा योगियों के ध्यान करने योग्य निरञ्जन ब्रह्मरूप हैं। देव! आपने अपने तेज से सम्पूर्ण आकाश का अन्तराल परिपूर्ण कर रखा है, इससे क्षण भर में ऐसी स्थिति हो जाने की सम्भावना है जिससे यह पूछना पड़ेगा कि देवताओं का निवास-स्थान कहाँ था -- समस्त देवलोक भस्म हो जाना चाहता है। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, देवता, और महर्षि आपके तेज से संतप्त हो आकाश में न तो ठहर पाते हैं और न कहीं आने-जाने के लिए मार्ग ही पाते हैं । आपके उग्र तेज से तपती हुई यह समूची पृथ्वी अब चराचर जगत् को उत्पन्न करने में समर्थ न होगी। अतएव समस्त संसार पर अनुग्रह करने के लिए आप इस तेज को समेट कर 'अरुणाचल' नाम से स्थावर लिंग हो जाइये।
जो मनुष्य आपके अरुणाचल नामक इस ज्योतिर्मय स्वरूप को भक्तिपूर्वक नमस्कार करेंगे, वे देवताओं से भी अधिक सम्मानित होंगे। अरुणाचल! आपकी शरण लेकर सब लोग ऐश्वर्य, सौभाग्य, महत्व तथा काल पर भी विजय प्राप्त करें ।'
यह स्तुति सुनकर भगवान् शंकर ने 'तथास्तु' कहकर वैसा ही वर दिया। उस समय कमलाकान्त भगवान् विष्णु ने अरुणाचलपति शिवजी से प्रार्थना करते हुए पुनः कहा :
'करुणानिधान! अरुणाचलेश्वर! प्रसन्न होइये। प्रभो! महेश्वर! आपका प्राकट्य समस्त लोकों के हित के लिए हुआ है। आपके इस परम अद्भुत् रूप की उपासना थोड़े पुण्यवाले लोगों को सुलभ नहीं है। मैंने और ब्रह्माजी ने वेदोक्त स्तोत्र द्वारा आपका स्तवन किया है। जो मनुष्य आपका पूजन करेंगे, वे निष्पाप और कृतार्थ होंगे। नाना प्रकार के उपहारों और पूजन सामग्रियों द्वारा जो लोग आपकी पूजा करें, वे अवश्य चक्रवर्ती राजा हों, तथा सब पापों से तत्काल मुक्त होकर शुद्धचित्त हो जायँ।
आपके समीप आये हुए सब मनुष्यों को अहंता और ममता का परित्याग करके निरन्तर आपके चरण-कमलों का ध्यान करना चाहिए।'
तब भगवान् चन्द्रशेखर ने 'ऐसा ही होगा' यह कहकर भगवान् विष्णु को वरदान दिया, और अरुणाचलरूप से भी स्थावरलिंग हो गये। समस्त लोकों का एकमात्र कारण यह तैजस्-लिंग (तब से) अरुणाचल नाम से विख्यात होकर इस भूतल पर दृष्टिगोचर हो रहा है। प्रलयकाल में सम्पूर्ण लोकों को अपने भीतर डुबो देने वाले चारों समुद्र भी इस अरुणाचल के निकट की भूमि का स्पर्श तक नहीं कर पाते।
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