श्री रमण जन्मोत्सव,
30 दिसम्बर 2021
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30-31 दिसम्बर 2010 के दिन यह ब्लॉग लिखना प्रारंभ किया था। उस समय तो यही कल्पना थी कि इस ब्लॉग के माध्यम से हिन्दी भाषियों को और अंग्रेजी या तमिऴ से अनभिज्ञ लोगों को भगवान् श्री रमण महर्षि के जीवन और शिक्षाओं के बारे में कुछ जानकारी दी जा सके।
शायद यह आकस्मिक संयोग-मात्र नहीं है, कि आज इस ब्लॉग के प्रारंभ होने को 11 वर्ष पूरे हो रहे हैं। और, भगवान् शिव के रुद्र रूप भी 11 कहे जाते हैं। संभवतः इसीलिए आज ही मुझे यह पोस्ट लिखने की प्रेरणा भी हुई होगी!
आज अचानक ध्यान आया कि आज के ही दिन, वर्ष 1879 में भगवान् श्री रमण महर्षि पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। उस समय अरुणाचल श्रीक्षेत्र में रुद्र-दर्शन का उत्सव मनाया जा रहा था, और जब भगवान् अरुणाचल की प्रतिमा को मन्दिर से बाहर ले जाया जा रहा था, ठीक उसी समय श्री रमण महर्षि का जन्म दक्षिण भारत में तिरुचूळी नामक स्थान पर हुआ था।
इस स्थान की महिमा का वर्णन वैसे तो तिरुचूळी / अरुणाचल- स्थल पुराण में है, किन्तु स्कन्द-पुराण, माहेश्वरखण्ड के अन्तर्गत अरुणाचल-माहात्म्य में भी पाया जाता है। जिसमें वर्णित कथा के अनुसार :
नैमिषारण्य-निवासी मुनियों ने कहा -- सूतजी! अब हम आपसे अरुणाचल-माहात्म्य सुनना चाहते हैं ।
श्री सूतजी बोले :
महर्षियों! प्राचीन काल की बात है, ब्रह्माजी सत्यलोक में कमल के आसन पर विराजमान थे। उस समय महात्मा सनक ने उन्हें प्रणाम करके हाथ जोड़कर पूछा --
'भगवन्! आप सम्पूर्ण भुवन के आधार और वेदवेद्य पुरुष हैं। चतुर्मुख! आपकी कृपा से मुझे सम्पूर्ण विज्ञान प्राप्त है। दयानिधे! भूमण्डल के समस्त शिवलिंगों में जो परम निर्मल और दिव्य, तथा अपरिच्छिन्न महिमा से युक्त है, जिसके स्मरण-मात्र से समस्त पातकों का विनाश हो जाता है, जो मनुष्यों को सदा भगवान् शिव का सारूप्य प्रदान करनेवाला है, जिसका आदि नहीं है, जो समस्त जगत् का आधार तथा भगवान् शंकर का अविनाशी तेज है, और जिसका दर्शन करके जीव कृतार्थ हो जाता है, उसकी महिमा का मुझे उपदेश कीजिए।'
ब्रह्माजी ने कहा --
बेटा! तुमने मेरे अन्तःकरण में पुरातन शिवयोग की स्मृति दिलाई है। तुम्हारे प्रति आदर का भाव होने से मैंने चिन्तन करके उस योग को स्मरण कर लिया है। तुम्हारी अधिक तपस्या के प्रभाव से मेरे चित्त में परम उत्तम शिव-भक्ति का उदय हुआ है, जिसने मेरे हृदय को क्षण भर में अपनी ओर आकृष्ट कर लिया है। जिन पुरुषों की सदा आकुलता-रहित (परम शान्त) भगवान् सदाशिव के प्रति भक्ति बढ़ती है, वे अपने चरित्रों से सम्पूर्ण जगत् को पवित्र कर देते हैं। शिवभक्तों के साथ वार्तालाप, निवास, मेल-जोल उनका दर्शन तथा स्मरण -- ये सब पापों का नाश करनेवाले हैं। पूर्वकाल में सबकी पाप-राशि को दूर करने वाला, अविनाशी, करुणा से भरा हुआ और अद्भुत् शैव तेज जिस प्रकार प्रकट हुआ था, वह वृत्तान्त सुनो । एक समय मेरे और भगवान् विष्णु के समक्ष एक अग्निमय स्तम्भ प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण लोकों को लाँघकर ऊपर से नीचे तक फैला हुआ था और सब ओर अग्नि के समान प्रज्वलित हो रहा था। उसका कहीं भी आदि-अन्त न होने के कारण वह सम्पूर्ण दिगन्तों में व्याप्त जान पड़ता था। भगवान् शिव के उस तेजोमय स्वरूप को देखकर मैंने भक्तिपूर्ण चित्त से उसका मानसिक पूजन किया और अपने चारों मुखों से वेदमन्त्रों का उच्चारण करते हुए शिव की स्तुति इस प्रकार से की --
'जो सम्पूर्ण लोकों की उत्पत्ति के एकमात्र हेतु हैं, उन महान् भगवान् शिव को नमस्कार है। शम्भो! आपका यह विश्वव्यापी तेज सब ओर प्रकाश फैला रहा है, किन्तु जो लोग आपकी कृपा से वंचित हैं, वे इसका दर्शन नहीं कर पाते। ठीक वैसे ही, जैसे जन्म के अन्धे सूर्य को नहीं देख पाते। अपने-आप प्रकट हुआ यह निर्मल लिंग अध्यात्म दृष्टि से देखने योग्य है। यह भीतर और बाहर सर्वत्र विराजमान है, ऐसा आपके भक्त अनुभव करते हैं।
देवेश्वर! जैसे दर्पण अपने में प्रतिबिम्ब को धारण करता है, उसी प्रकार योगीजन अपने अन्तरात्मा में आपके इस प्रज्वलित तेज -- अपरिच्छेद्य विग्रह का दर्शन करते हैं। अथवा, भगवान् शंकर की नित्यशक्ति सूक्ष्म से भी अतिशय सूक्ष्म है, वह शक्ति मुझमें भी विलीन होती है, अतः मुझसे बढ़कर दूसरा नहीं है। अणु (छोटे से छोटा जीव या पदार्थ) भी आपकी कृपा का पात्र बन जाने पर निश्चय ही महत्व को प्राप्त होता है। आपसे बढ़कर तो कोई है ही नहीं, किन्तु आपका ही आश्रय लेने के कारण मुझसे बढ़कर भी दूसरा कोई नहीं है। भगवन्! आपमें लगाया हुआ मन आपसे एक क्षण के लिए भी वियोग नहीं चाहता, फिर किसकी प्रेरणा से मेरी वाणी आपकी महिमा के वर्णन में प्रवृत्त हो। ईश! महादेव! आप समस्त भुवनों में सबसे उत्कृष्ट हैं, अतः स्वयं ही कृपा करके मुझ पर प्रसन्न होइये। नाथ! आपके चरणों में पड़े हुए इस भक्त को अपेक्षित कार्यों में नियुक्त होने के लिए आज्ञा दीजिये।'
(स्थावर लिंग) -- अगले पोस्ट में निरंतर.
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