"धी" पद विवेचन
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बहुत समय से इस विषय पर लिखने के बारे में मन था । वह भी भगवान् श्री रमण महर्षि के द्वारा जैसा इस पद का प्रयोग किया गया है।
धिया सहोदेति धियास्तमेति,
लोकस्ततो धी-प्रविभास्य एषः ।
धी-लोक-जन्म-क्षय-धाम पूर्णं
सद्वस्तु जन्म-क्षय-शून्यमेकम् ।।७।।
क्व भाति दिक्काल-कथा विनाऽस्मान्
दिक्काल लीलेह वपुर्वयं चेत् ।
न क्वापि भामो न कदापि भामो
वयं तु सर्वत्र सदा च भामः ।।१६।।
धिये प्रकाशं परमो वितीर्य
स्वयं धियोऽन्तः प्रविभाति गुप्तः।
धियं परावर्त्य धियोऽन्तरेऽत्र
संयोजनान्नेश्वरदृष्टिरन्या ।।२२।।
न वक्ति देहोऽहमिति प्रसुप्तौ
न कोऽपि नाभूवमिति प्रवक्ति।
यत्रोदिते सर्वमुदेति तस्य
धियाऽहमः शोधय जन्मदेशम् ।।२३।।
देहो न जानाति सतो न जन्म
देहप्रमाणोऽन्य उदेति मध्ये।
अहङ्कृति-ग्रन्थि-विबन्ध-सूक्ष्म-
शरीरचेतो भवजीवनामा ।।२४।।
सद्दर्शनम् के उपरोक्त श्लोकों में धी अर्थात् बुद्धि का क्या महत्व है इसे स्पष्ट किया गया है। 'धी' एकवचन है, 'धियः' बहुवचन है।
'अहं-धी' का तात्पर्य हुआ "मैं"-बुद्धि।
श्लोक १७ में इसी धी पद का प्रयोग क्रमशः
धिये (चतुर्थी, सम्प्रदान, एकवचन),
धियः (षष्ठी, संबंध, एकवचन) तथा,
धियं (द्वितीया, कर्म, एकवचन)
के अर्थ में किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि परमात्मा ने यद्यपि बुद्धि में अपना प्रकाश (चित् / चैतन्य) विकीर्ण किया, परन्तु स्वयं बुद्धि में गुप्त रूप से छिपा रहते हुए भी मनुष्य को बुद्धि के रूप में दिखलाई देता रहा। इसलिए हर मनुष्य परमात्मा को अपनी बुद्धि-विशेष के रूप में अनायास ही जानता भी है । व्यवहार में हर मनुष्य अपना उल्लेख करते स्वयं को "मैं" शब्द से व्यक्त करता है। यह है, "मैं" सर्वनाम का वाच्यार्थ।
इसमें सन्देह नहीं कि इस नाम (या सर्वनाम) का हर किसी के लिए यद्यपि नितान्त निजी तात्पर्य होता है, उस दृष्टि से भी कोई इसे किसी अन्य के अर्थ में प्रयुक्त भी नहीं करता, किन्तु फिर भी यह भी सत्य है, कि किसी को इस पद / शब्द के प्रयोग से कभी कोई दुविधा भी नहीं होती है। ईश्वर-दृष्टि अर्थात् उस परमेश्वर के दर्शन करने के लिए यही पर्याप्त है, कि इस बहिर्मुखी बुद्धि को बाहर से हटाकर भीतर की दिशा में लौटाया जाए, और अपने अन्तर में ही संलग्न कर, इस प्रकार से ईश्वर का दर्शन कर लिया जाए।
श्लोक संख्या ७ में यह इंगित किया गया है कि बुद्धि और संसार एक ही साथ प्रकट और विलुप्त होते हैं, इसलिए यह कहा जाता है कि लोक / संसार का भान / अनुभव बुद्धि से ही होता है। इस प्रकार से, बुद्धि से ही संसार का जन्म और क्षय होता है, जबकि वह सद्वस्तु अर्थात् परमात्मा, जिससे बुद्धि को चैतन्य प्राप्त होता है, जन्म तथा क्षय से रहित पूर्ण और एकमेव है।
इस प्रकार बुद्धि ही वह द्वार है, जिसके एक ओर संसार व दूसरी ओर परमात्मा है। फिर भी यह बुद्धि ही परमात्मा का वह प्रत्यक्ष लक्षण है जो हमें सदैव प्रत्यक्षतः प्राप्त है।
इस बुद्धि में ही चित् / चैतन्य चेतना के रूप में प्रतिबिम्बित होता है, और चित् / चैतन्य में ही बुद्धि की गतिविधि संभव होती है। अतः चैतन्य प्रथम / प्रधान है, और बुद्धि गौण है। इस प्रकार से, बुद्धि में प्रतिबिम्बित चैतन्य ही चेतना है।
इसी बुद्धि में ही पुनः अपने / अपनी आत्मा के सतत 'एक' होने का, और 'अनेक' न होने का स्वाभाविक निश्चय भी अनायास ही प्रत्येक प्राणी में होता ही है।
यह 'एक' ही 'अहं-पद' है ।
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अहं-पद विवेचन
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सर्वैर्निदानं जगतोऽहमश्च
वाच्यः प्रभुः कश्चिदपारशक्तिः ।
चित्रेऽत्र लोक्यं च विलोकिता च
पटः प्रकाशोप्यभवत्स एकः ।।१।।
आरभ्यते जीवजगत्परात्म-
तत्त्वाभिधानेन मतं समस्तम् ।
इदं त्रयं यावदहं-मतिः स्यात्
सर्वोत्तमाऽहं-मति-शून्य निष्ठा ।।२।।
तद्युष्मदोरस्मदि संप्रतिष्ठा
तस्मिन् विनष्टेऽस्मदि मूलबोधात् ।
तद्युष्मदस्मिन्मतिवर्जितैका
स्थितिर्ज्वलन्ती सहजात्मनः स्यात् ।।१४।।
न वक्ति देहोऽहमिति प्रसुप्तौ ...
धियाऽहमः शोधय जन्मदेशम् ।।२३।।
देहो न जानाति सतो न जन्म
देहप्रमाणोऽन्य उदेति मध्ये ।
अहङ्कृति-ग्रन्थि-विबन्ध-सूक्ष्म
शरीर-चेतो-भव-जीवनामा ।।२४।।
रूपोद्भवो रुपतति प्रतिष्ठो
रूपाशनो धूतगृहीतरूपः ।
स्वयं विरूपः स्वविचार-काले
धावत्यहङ्कारपिशाच एषः ।।२५।।
भावेऽहमः सर्वमिदं विभाति
लयेऽहमो नैव विभाति किञ्चित् ।
तस्मादहंरूपमिदं समस्तं
तन्मार्गणे सर्वजयाय मार्गः ।।२६।।
सत्या स्थितिर्नाहमुदेति यत्र
तच्चोदयस्थान गवेषणेन ।
विना न नश्येद्यदि तन्न नश्येत्
स्वात्मैक्यरूपा कथमस्तु निष्ठा ।।२७।।
कूपे यथा गाढजले तथान्तः
निमज्ज्यबुद्ध्या शितया नितान्तम् ।
प्राणं च वाचं च नियम्य चिन्वन्
विन्देन्निजाहङ्कृतिमूलरूपम् ।।२८।।
मौनेन मज्जन्मनसा स्वमूल-
चर्चैव सत्यात्मविचारणं स्यात् ।
एषोऽहमेतन्न मम स्वरूप-
मिति प्रमा सत्यविचारणाङ्गम् ।।२९।।
गवेषणात्प्राप्य हृदन्तरं तत्
पतेदहन्ता परिभुग्नशीर्षा ।
अथाहमन्यत्स्फुरति प्रकृष्टम्
नाहङ्कृतिस्तत्परमेवपूर्णम् ।।३०।।
अहङ्कृतिं यो लसति ग्रसित्वा
किं तस्य कार्यं परिशिष्टमस्ति ।
किञ्चिद्विजानाति स नात्मनोऽन्यत्
तस्य स्थितिं भावयितुं क्षमः कः।।।३१।।
न वेद्म्यहं मामुत वेद्म्यहं मा-
मिति प्रवादो मनुजस्य हास्यम् ।
दृग्दृश्यभेदात्किमयं द्विधात्मा
स्वात्मैकतायां हि धियां न भेदाः ।।३३।।
सोऽहंविचारो वपुरात्मभावे
साहाय्यकारी परमार्गणस्य ।
स्वात्मैक्यसिद्धौ स पुनर्निरर्थौ
यथा नरत्वप्रमितिर्नरस्य ।।३६।।
रूपिण्यरूपिण्युभयात्मिका च
मुक्तिस्त्रिरूपेति विदो वदन्ति ।
इदं त्रयं या विविनक्त्यहंधीः
तस्या प्रणाशः परमार्थमुक्तिः ।।४०।।
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सद्दर्शनम् से उद्धृत उपरोक्त श्लोकों में अहं पद का प्रयोग कहीं कहीं उत्तम पुरुष एकवचन में, और कहीं अन्य पुरुष एकवचन में भी किया गया है। इस प्रकार अहं-पदार्थ का तात्पर्य सन्दर्भ के अनुसार स्वयं या यह / वह दोनों तरह से है।
उपदेश-सार में भी इस प्रकार से 'अहं'-पद का प्रयोग भिन्न भिन्न रूपों में दृष्टव्य है :
भेदभावनात्सोऽहमित्यसौ ।
भावनाऽभिदा पावनी मति ।।८।।
(मधुसूदन सरस्वती ने भक्ति के तीन भेद कहे हैं :
१ तस्य अहम् - मैं उसका हूँ।
२ तवैवाहम् - मैं तुम्हारा हूँ।
३ त्वमैवाहम् - तुम ही मैं हूँ।)
वृत्तयस्त्वहं-वृत्तिमाश्रिताः ।
वृत्तयो मनो विद्ध्यहं मनः ।।१८।।
अहमयं कुतो भवति चिन्वतः ।
अयि पतत्यहं निज-विचारणम् ।।१९।।
अहमि नाशभाज्यहमहन्तया ।
स्फुरति हृत्स्वयं परमपूर्ण सत् ।।२०।।
प्रश्न : अहम् का नाश हो जाने पर फिर अन्य अहम् का स्फुरण / भान कहाँ से होता है?
उत्तर : वही वास्तविक अहम् है। अहन्ता व्यक्तित्व से भिन्न नहीं है। वह व्यक्तित्व, मनोगत तथा आत्मगत दो रूपों में हो सकता है -- जब अहम् भाव मनोगत होता है, तब आत्मा का अहम् भाव अप्रकट होता है, और जब इस मनोगत अहम् भाव की निवृत्तिहो जाती है तब आत्मा का निज अहम् भाव प्रकट हो उठता है। इसीलिए कहा गया है कि एक मनोगत अहम् भाव के मिट जाते ही हृदय स्वाभाविक 'अहम् अहम्' की तरह स्फुरित होता है।
इदमहंपदाभिख्यमन्वहम् ।
अहमिलीनकेऽप्यलयसत्तया ।।२१।।
यह हृत्, जिसकी 'अहम् पद' अभिख्या है --अर्थात् जिसका बोध अहम् पद से होता है -- उसकी सत्ता, मनोमय अहंकार के नष्ट हो जाने पर भी लय नहीं होती । भाव यह है कि 'अहम् पद' मन के सन्दर्भ में गौण तथा आत्मा के सन्दर्भ में प्रधान रूप से प्रयुक्त होता है। जो अहम् पदार्थ है, वह आत्मा है यह सभी मानते हैं -- अर्थात् सभी अपने आपको आत्मा ही मानते हैं जिस पर अपने मन / शरीर आदि नाम रूप अज्ञानवश आरोपित कर लिए जाते हैं । यह आत्मा अर्थात् अहम् पदार्थ, वह अहंकार कदापि नहीं हो सकता, जिसका रूप सतत बदलता, बनता और मिटता रहता है । क्योंकि अहंकार के नष्ट होने पर भी आत्मा नष्ट नहीं होती, बल्कि अपने भान के रूप में स्फुरित ही रहती है। इस प्रकार से अन्वय-व्यतिरेक से भी यह सिद्ध हो जाता है कि अहम् पद का प्रयोग, मन के सन्दर्भ में गौण रूप से, तथा आत्मा के सन्दर्भ में प्रधान रूप से किया जाता है।
प्रश्न : गौण कैसे और प्रधान कैसे?
उत्तर : मन के सन्दर्भ में अहम् पद का प्रयोग गौण है, क्योंकि वहाँ आत्मा से संबंधित होने से मन को आत्मा मान लिया जाता है, जबकि आत्मा के सन्दर्भ में अहम् पद सत्ता के अर्थ में प्रयुक्त होता है, जिसका भान नित्य है।
विग्रहेन्द्रियप्राणधीतमः ।
नाहमेकसत्तज्जडं ह्यसत् ।।२२।।
आत्मा के अर्थ में अहम् पद सत्ता / सत् का द्योतक है, जबकि शरीर, इन्द्रिय, प्राण तथा इन्द्रियों के विषय असत् / जड हैं । जो जड है उसकी नित्यता ही नहीं है तो वह आत्मा भी कैसे हो सकता है?
सत्त्वभासिका चित्क्ववेतरा ।
सत्तया हि चिच्चित्तया ह्यहम् ।।२३।।
इस अंतिम श्लोक में स्पष्ट किया गया है कि सत् और चित् एक ही आत्मा के दो पक्ष aspects हैं।
चित् का अस्तित्व स्वप्रमाणित है, और अस्तित्व का अर्थ ही है सत्ता या विद्यमानता । इस प्रकार दोनों परस्पर अभिन्न हैं।
रमण गीता के चतुर्थ अध्याय में अहं पद को वृत्ति के अर्थ में प्रयुक्त करते हुए ग्रन्थकर्ता वासिष्ठ गणपति मुनि द्वारा भगवान् श्री रमण महर्षि से पूछा गया :
अहं ब्रह्मास्मीति वृत्तिः किं ज्ञानं मुनिकुञ्जर ।।
उत ब्रह्माहमिति धी र्धीरहं सर्वमित्युत ।।१।।
अथवा सकलं चैतद् ब्रह्मेति ज्ञानमुच्यते ।।
अस्माद्वृत्तिचतुष्काद्वा किं नु ज्ञानं विलक्षणम्।।२।।
इस पर भगवान् कहते हैं :
वृत्तयो भावना एव सर्वा एता न संशयः ।।
स्वरूपावस्थितिं शुद्धां ज्ञानमाहुर्मनीषिणः ।।४।।
पुनः एक नया प्रश्न उनके समक्ष रखा जाता है :
वृत्तिव्याप्यं भवेद्ब्रह्म न वा नाथ तपस्विनाम् ।।
इमं मे हृदि सञ्जातं संशयं छेत्तुमर्हसि ।।५।।
इसके उत्तर में श्री रमण भगवान् कहते हैं :
स्वात्मभूतं यदि ब्रह्म ज्ञातुं वृत्तिः प्रवर्तते ।।
स्वात्माकारा तदा भूत्वा न पृथक् प्रतितिष्ठति ।।८।।
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किसी संभावित त्रुटि का आभास होने पर कृपया मूल ग्रन्थों का अवलोकन अवश्य करें।।
।। शिवार्पणमस्तु।।
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