पिछली पोस्ट में उद्धृत श्लोक स्मृति की सहायता से लिखा था।
मूल श्लोक में दूसरी पंक्ति इस प्रकार से है:
नात्मैव दृश्यो यदि का कथेशे,
स्वयं तदन्नीभवनं तदीक्षा।।
इससे मिलती जुलती पंक्ति अन्यत्र इस प्रकार से है :
दृग्दृश्यभेदात्किमयं द्विधात्मा,
स्वात्मैकतायां हि धियां न भेदः।।
इससे तत्काल ही स्पष्ट हो जाता है कि
"The observer is the observed"
का क्या अभिप्राय हो सकता है।
आत्म-दर्शन में दृक् और दृश्य दोनों साथ साथ ही विलुप्त / निःशेष हो जाते हैं ।
जिस प्रकार दृश्य (observed) एक प्रत्यय (notion) है, उसी प्रकार दृक् (observer) भी एक प्रत्यय (notion) मात्र है।
"प्रतीयते विधीयते इति प्रत्ययं।"
के अनुसार यद्यपि किसी प्रत्यय का व्यावहारिक सत्य के स्तर पर उपयोग है, किंतु इससे वह परम सत्य का विकल्प नहीं हो सकता।
ब्रह्म की तरह आत्मा भी स्वगत, सजातीय तथा विजातीय इन तीनों भेदों से रहित है। क्या वह निद्रा जैसी अंधकारपूर्ण अवस्था है?
स्पष्ट है कि निद्रा को पातञ्जल योगसूत्र में "वृत्ति" कहा गया है,
जहाँ दृक्-दृश्य भेद पाया जाता है।
इस प्रकार आत्मा अज्ञानमय या अंधकारपूर्ण अवस्था न होकर एकमेव अद्वितीय चित् (unique awareness) है।
इसी प्रकार आत्मा,
सत् ( Undifferentiated Existence)
भी है।
इसलिए इस पंक्ति को दूसरी रीति से "दृष्टा" के प्रयोग से इस प्रकार इंगित किया गया कि आत्मा को दृष्टा अर्थात् दृक् की तरह न ग्रहण किया जाए।
।।ॐ तत् सत्।।
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