उपदेश-सार एवं सद्दर्शनम्
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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 के अनुसार :
लोकेऽस्मिन्द्विविधानिष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।।३।।
उपदेश-सार का प्रारम्भ इस प्रकार से होता है :
कर्तुराज्ञया प्राप्यते फलम् ।।
कर्म किं परं कर्म तज्जडम् ।।१।।
कृति महोदधौ पतनकारणं ।।
फलमशाश्वतं गतिनिरोधकम् ।।२।।
ईश्वरार्पितं नेच्छयाकृतम् ।।
चित्तशोधकं मुक्तिसाधकम् ।।३।।
सद्दर्शनम् श्लोक 31 के अनुसार :
मौनेन मज्जनमनसा स्वमूल-
चर्चैव सत्यात्मविचारणं स्यात् ।।
एषोऽहमेतन्न ममस्वरूप-
मिति प्रमा सत्यविचारणाङ्गम् ।।३१।।
रोचक तथ्य यह है कि श्रीमद्भगवद्गीता में ज्ञानयोग का अर्थात् साङ्ख्य योग का उल्लेख ग्रन्थ के प्रारम्भ में है और ऊपर उद्धृत श्लोक 3/3, जिसमें कि संसार में अध्यात्म के जिज्ञासुओं को दो प्रकार का कहा है, अध्याय 3 में प्राप्त होता है ।
उपदेश-सार ग्रन्थ में ज्ञानयोग की शिक्षा श्लोक क्रमांक 16 से प्रारम्भ होती है :
दृश्यवारितं चित्तमात्मनः।।
चित्त्वदर्शनं तत् त्वदर्शनम् ।।१६।।
भगवान् श्री रमण महर्षि रचित उपदेश-सार और सद्दर्शनम् ग्रन्थ भी यद्यपि इन दोनों प्रकार की दोनों दो भिन्न भिन्न निष्ठाओं से युक्त मुमुक्षुओं के लिए सहायक हैं, सद्दर्शनम् में वर्णित मौन का उल्लेख उपदेश-सार में नहीं पाया जाता । अतएव सद्दर्शनम् से उद्धृत इस श्लोक में अवश्य ही मौन का उल्लेख आत्मानुसन्धान के सन्दर्भ में दृष्टव्य है।
संभवतः इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि उपदेश-सार में श्लोक 3 में चित्त की शुद्धि के लिए एक साधन की तरह से ईश्वर को समर्पित बुद्धि से, न कि अपनी इच्छा की पूर्ति की भावना से कर्म का अनुष्ठान करने के लिए कहा गया है । फिर जगत् की ही ईश्वर-बुद्धि से सेवा रूपी पूजन जप चिन्तन आदि रूपों के वर्णन से क्रमशः शरीर, वाणी और मन से ईश्वर के स्मरण का उल्लेख है। अतः यहाँ वाणी के मौन के बारे में नहीं कहा गया, जबकि सद्दर्शनम् के श्लोक में प्रथम वाणी, चित्त एवं मन को शुद्ध करने और फिर ऐसे मौन, एकाग्र मन को उसके स्वयं के ही वास्तविक स्वरूप के अन्वेषण में संलग्न करने, तथा तब आत्मा के स्वरूप के बारे में, कि आत्मा स्वरूपतः क्या है और क्या नहीं है, इस बारे में अन्वेषण या आत्मानुसन्धान करने में संलग्न करने का निर्देश दिया गया ।
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