शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

तैजस्-लिंग अरुणाचल

स्कन्द-पुराण से 

(अरुणाचल माहात्म्य खण्ड)

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श्री सूतजी कहते हैं --

इस प्रकार श्रद्धा और भक्ति के साथ प्रणाम और स्तुति करने वाले ब्रह्मा और भगवान् विष्णु के ऊपर भगवान् शंकर बहुत प्रसन्न हुए तथा उस तेजोमय स्तम्भ से गौर वर्ण, नीलकण्ठ पुरुष रूप से प्रकट हुए। उनके मस्तक पर अर्धचन्द्र का मुकुट शोभा पा रहा था। हाथों में परशु, बालमृग तथा अभय और विश्राम की मुद्राएँ थीं। वे ब्रह्मा और विष्णु से बोले : 

'मुझमें चित्त लगानेवाले तुम दोनों की भक्ति से मैं बहुत सन्तुष्ट हूँ। तुम मुझसे कोई वर माँगो।'

भगवान् शंकर के इस वचन से उन दोनों को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने हाथ जोड़कर अपना-अपना पृथक् प्रयोजन निवेदन किया और कभी परास्त न होनेवाले त्रिभुवन-विधाता भगवान् शिव का वैदिक मन्त्रों से स्तवन करते हुए इस प्रकार कहा :

'भगवन्! आपके इस दिव्य रूप को हम नमस्कार करते हैं। आप सतत वर देनेवाले ईश्वर हैं, तेजोमय हैं, देवताओं में सबसे श्रेष्ठ महादेव हैं तथा योगियों के ध्यान करने योग्य निरञ्जन ब्रह्मरूप हैं। देव!  आपने अपने तेज से सम्पूर्ण आकाश का अन्तराल परिपूर्ण कर रखा है, इससे क्षण भर में ऐसी स्थिति हो जाने की सम्भावना है जिससे यह पूछना पड़ेगा कि देवताओं का निवास-स्थान कहाँ था -- समस्त देवलोक भस्म हो जाना चाहता है। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, देवता, और महर्षि आपके तेज से संतप्त हो आकाश में न तो ठहर पाते हैं और न कहीं आने-जाने के लिए मार्ग ही पाते हैं । आपके उग्र तेज से तपती हुई यह समूची पृथ्वी अब चराचर जगत् को उत्पन्न करने में समर्थ न होगी। अतएव समस्त संसार पर अनुग्रह करने के लिए आप इस तेज को समेट कर 'अरुणाचल' नाम से स्थावर लिंग हो जाइये। 

जो मनुष्य आपके अरुणाचल नामक इस ज्योतिर्मय स्वरूप को भक्तिपूर्वक नमस्कार करेंगे, वे देवताओं से भी अधिक सम्मानित होंगे। अरुणाचल! आपकी शरण लेकर सब लोग ऐश्वर्य, सौभाग्य, महत्व तथा काल पर भी विजय प्राप्त करें ।'

यह स्तुति सुनकर भगवान् शंकर ने 'तथास्तु' कहकर वैसा ही वर दिया। उस समय कमलाकान्त भगवान् विष्णु ने अरुणाचलपति शिवजी से प्रार्थना करते हुए पुनः कहा :

'करुणानिधान!  अरुणाचलेश्वर! प्रसन्न होइये। प्रभो!  महेश्वर! आपका प्राकट्य समस्त लोकों के हित के लिए हुआ है। आपके इस परम अद्भुत् रूप की उपासना थोड़े पुण्यवाले लोगों को सुलभ नहीं है। मैंने और ब्रह्माजी ने वेदोक्त स्तोत्र द्वारा आपका स्तवन किया है। जो मनुष्य आपका पूजन करेंगे, वे निष्पाप और कृतार्थ होंगे। नाना प्रकार के उपहारों और पूजन सामग्रियों द्वारा जो लोग आपकी पूजा करें, वे अवश्य चक्रवर्ती राजा हों, तथा सब पापों से तत्काल मुक्त होकर शुद्धचित्त हो जायँ। 

आपके समीप आये हुए सब मनुष्यों को अहंता और ममता का परित्याग करके निरन्तर आपके चरण-कमलों का ध्यान करना चाहिए।'

तब भगवान् चन्द्रशेखर ने 'ऐसा ही होगा' यह कहकर भगवान् विष्णु को वरदान दिया, और अरुणाचलरूप से भी स्थावरलिंग हो गये। समस्त लोकों का एकमात्र कारण यह तैजस्-लिंग (तब से) अरुणाचल नाम से विख्यात होकर इस भूतल पर दृष्टिगोचर हो रहा है। प्रलयकाल में सम्पूर्ण लोकों को अपने भीतर डुबो देने वाले चारों समुद्र भी इस अरुणाचल के निकट की भूमि का स्पर्श तक नहीं कर पाते।

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गुरुवार, 30 दिसंबर 2021

स्थावर लिंग

।। श्री अरुणाचलेश्वराय नमः।।

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ब्रह्माजी ने आगे कहा :

'विनयपूर्वक यह निवेदन करके मैंने हाथ जोड़कर देव-देवेश्वर भगवान् को बारम्बार प्रणाम किया, और उन्हीं के समीप बैठ गया। तत्पश्चात् नूतन जलधर के समान गम्भीर ध्वनिवाले श्री विष्णु ने शंकरजी की महिमा के कीर्तन द्वारा अपनी विशुद्ध वाणी को और भी कृतार्थ करते हुए कहा :

'तीनों लोकों के अधीश्वर! प्रभो!  गंगाधर!  जगन्नाथ! विरुपाक्ष चन्द्रशेखर! आपकी जय हो! शम्भो! आपकी दया असीम है और वह सभी भक्तजनों पर सदा अकारण बढ़ती रहती है, जिससे उन भक्तों में स्वच्छ और पूर्ण ज्ञान का आधान होता है। प्रायः सम्पूर्ण विद्याओं का पालन और समस्त ऐश्वर्यों का संग्रह भी आपकी कृपा से ही संभव है। आपको जानने में आप ही समर्थ हैं, अथवा जिसको आपका कृपाप्रसाद प्राप्त है, वह समर्थ हो सकता है। क्या भ्रमर किसी कीट को आकृष्ट करके उसे अपने स्वरूप की प्राप्ति नहीं करा देता? उसी प्रकार आप भी अपने तुच्छ भक्त को अपनाकर अपने समान बना लेते हैं। क्या देवता इसीलिए प्रभावशाली नहीं होते हैं, क्योंकि वे आपके ही अंश से उत्पन्न हुए हैं? क्या तपाये हुए लोहे में जो अग्निदेवता स्थित हैं, उनमें जलाने की शक्ति नहीं होती? देव! शंकर!  सर्वाधार! आप कृपा करके हमारे नेत्रों को आनन्द प्रदान करनेवाली अपनी दिव्य मूर्ति का दर्शन कराइये!'

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(निरन्तर...)


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रुद्र-दर्शन

श्री रमण जन्मोत्सव, 

30 दिसम्बर 2021

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30-31 दिसम्बर 2010 के दिन यह ब्लॉग लिखना प्रारंभ किया था। उस समय तो यही कल्पना थी कि इस ब्लॉग के माध्यम से हिन्दी भाषियों को और अंग्रेजी या तमिऴ से अनभिज्ञ लोगों को भगवान् श्री रमण महर्षि के जीवन और शिक्षाओं के बारे में कुछ जानकारी दी जा सके।

शायद यह आकस्मिक संयोग-मात्र नहीं है, कि आज इस ब्लॉग के प्रारंभ होने को 11 वर्ष पूरे हो रहे हैं। और, भगवान् शिव के रुद्र रूप भी 11 कहे जाते हैं। संभवतः इसीलिए आज ही मुझे यह पोस्ट लिखने की प्रेरणा भी हुई होगी! 

आज अचानक ध्यान आया कि आज के ही दिन, वर्ष 1879 में भगवान् श्री रमण महर्षि पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। उस समय अरुणाचल श्रीक्षेत्र में रुद्र-दर्शन का उत्सव मनाया जा रहा था, और जब भगवान् अरुणाचल की प्रतिमा को मन्दिर से बाहर ले जाया जा रहा था, ठीक उसी समय श्री रमण महर्षि का जन्म दक्षिण भारत में तिरुचूळी नामक स्थान पर हुआ था।

इस स्थान की महिमा का वर्णन वैसे तो तिरुचूळी / अरुणाचल- स्थल पुराण में है, किन्तु स्कन्द-पुराण, माहेश्वरखण्ड के अन्तर्गत  अरुणाचल-माहात्म्य में भी पाया जाता है। जिसमें वर्णित कथा के अनुसार  :

नैमिषारण्य-निवासी मुनियों ने कहा -- सूतजी! अब हम आपसे अरुणाचल-माहात्म्य सुनना चाहते हैं ।

श्री सूतजी बोले :

महर्षियों!  प्राचीन काल की बात है, ब्रह्माजी सत्यलोक में कमल के आसन पर विराजमान थे। उस समय महात्मा सनक ने उन्हें प्रणाम करके हाथ जोड़कर पूछा --

'भगवन्! आप सम्पूर्ण भुवन के आधार और वेदवेद्य पुरुष हैं। चतुर्मुख! आपकी कृपा से मुझे सम्पूर्ण विज्ञान प्राप्त है। दयानिधे! भूमण्डल के समस्त शिवलिंगों में जो परम निर्मल और दिव्य, तथा अपरिच्छिन्न महिमा से युक्त है, जिसके स्मरण-मात्र से समस्त पातकों का विनाश हो जाता है, जो मनुष्यों को सदा भगवान् शिव का सारूप्य प्रदान करनेवाला है, जिसका आदि नहीं है, जो समस्त जगत् का आधार तथा भगवान् शंकर का अविनाशी तेज है, और जिसका दर्शन करके जीव कृतार्थ हो जाता है, उसकी महिमा का मुझे उपदेश कीजिए।'

ब्रह्माजी ने कहा -- 

बेटा! तुमने मेरे अन्तःकरण में पुरातन शिवयोग की स्मृति दिलाई है। तुम्हारे प्रति आदर का भाव होने से मैंने चिन्तन करके उस योग को स्मरण कर लिया है। तुम्हारी अधिक तपस्या के प्रभाव से मेरे चित्त में परम उत्तम शिव-भक्ति का उदय हुआ है, जिसने मेरे हृदय को क्षण भर में अपनी ओर आकृष्ट कर लिया है। जिन पुरुषों की सदा आकुलता-रहित (परम शान्त) भगवान् सदाशिव के प्रति भक्ति बढ़ती है, वे अपने चरित्रों से सम्पूर्ण जगत् को पवित्र कर देते हैं। शिवभक्तों के साथ वार्तालाप, निवास, मेल-जोल उनका दर्शन तथा स्मरण -- ये सब पापों का नाश करनेवाले हैं। पूर्वकाल में सबकी पाप-राशि को दूर करने वाला, अविनाशी, करुणा से भरा हुआ और अद्भुत् शैव तेज जिस प्रकार प्रकट हुआ था, वह वृत्तान्त सुनो । एक समय मेरे और भगवान् विष्णु के समक्ष एक अग्निमय स्तम्भ प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण लोकों को लाँघकर ऊपर से नीचे तक फैला हुआ था और सब ओर अग्नि के समान प्रज्वलित हो रहा था। उसका कहीं भी आदि-अन्त न होने के कारण वह सम्पूर्ण दिगन्तों में व्याप्त जान पड़ता था। भगवान् शिव के उस तेजोमय स्वरूप को देखकर मैंने भक्तिपूर्ण चित्त से उसका मानसिक पूजन किया और अपने चारों मुखों से वेदमन्त्रों का उच्चारण करते हुए शिव की स्तुति इस प्रकार से की --

'जो सम्पूर्ण लोकों की उत्पत्ति के एकमात्र हेतु हैं, उन महान् भगवान् शिव को नमस्कार है। शम्भो! आपका यह विश्वव्यापी तेज सब ओर प्रकाश फैला रहा है, किन्तु जो लोग आपकी कृपा से वंचित हैं, वे इसका दर्शन नहीं कर पाते। ठीक वैसे ही, जैसे जन्म के अन्धे सूर्य को नहीं देख पाते। अपने-आप प्रकट हुआ यह निर्मल लिंग अध्यात्म दृष्टि से देखने योग्य है। यह भीतर और बाहर सर्वत्र विराजमान है, ऐसा आपके भक्त अनुभव करते हैं।

देवेश्वर! जैसे दर्पण अपने में प्रतिबिम्ब को धारण करता है, उसी प्रकार योगीजन अपने अन्तरात्मा में आपके इस प्रज्वलित तेज -- अपरिच्छेद्य विग्रह का दर्शन करते हैं। अथवा, भगवान् शंकर की नित्यशक्ति सूक्ष्म से भी अतिशय सूक्ष्म है, वह शक्ति मुझमें भी विलीन होती है, अतः मुझसे बढ़कर दूसरा नहीं है। अणु (छोटे से छोटा जीव या पदार्थ) भी आपकी कृपा का पात्र बन जाने पर निश्चय ही महत्व को प्राप्त होता है। आपसे बढ़कर तो कोई है ही नहीं, किन्तु आपका ही आश्रय लेने के कारण मुझसे बढ़कर भी दूसरा कोई नहीं है। भगवन्! आपमें लगाया हुआ मन आपसे एक क्षण के लिए भी वियोग नहीं चाहता, फिर किसकी प्रेरणा से मेरी वाणी आपकी महिमा के वर्णन में प्रवृत्त हो।  ईश!  महादेव! आप समस्त भुवनों में सबसे उत्कृष्ट हैं, अतः स्वयं ही कृपा करके मुझ पर प्रसन्न होइये। नाथ! आपके चरणों में पड़े हुए इस भक्त को अपेक्षित कार्यों में नियुक्त होने के लिए आज्ञा दीजिये।'

(स्थावर लिंग)  -- अगले पोस्ट में निरंतर. 

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शुक्रवार, 10 दिसंबर 2021

वाच्यार्थ / लक्ष्यार्थ

"धी" पद विवेचन

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बहुत समय से इस विषय पर लिखने के बारे में मन था । वह भी भगवान् श्री रमण महर्षि के द्वारा जैसा इस पद का प्रयोग किया गया है।

धिया सहोदेति धियास्तमेति, 

लोकस्ततो धी-प्रविभास्य एषः ।

धी-लोक-जन्म-क्षय-धाम पूर्णं

सद्वस्तु जन्म-क्षय-शून्यमेकम् ।।७।।

क्व भाति दिक्काल-कथा विनाऽस्मान्

दिक्काल लीलेह वपुर्वयं चेत् ।

न क्वापि भामो न कदापि भामो

वयं तु सर्वत्र सदा च भामः ।।१६।।

धिये प्रकाशं परमो वितीर्य

स्वयं धियोऽन्तः प्रविभाति गुप्तः। 

धियं परावर्त्य धियोऽन्तरेऽत्र

संयोजनान्नेश्वरदृष्टिरन्या ।।२२।।

न वक्ति देहोऽहमिति प्रसुप्तौ

न कोऽपि नाभूवमिति प्रवक्ति।

यत्रोदिते सर्वमुदेति तस्य

धियाऽहमः शोधय जन्मदेशम् ।।२३।।

देहो न जानाति सतो न जन्म

देहप्रमाणोऽन्य उदेति मध्ये। 

अहङ्कृति-ग्रन्थि-विबन्ध-सूक्ष्म-

शरीरचेतो भवजीवनामा ।।२४।।

सद्दर्शनम् के उपरोक्त श्लोकों में धी अर्थात् बुद्धि का क्या महत्व है इसे स्पष्ट किया गया है। 'धी' एकवचन है, 'धियः' बहुवचन है।

'अहं-धी' का तात्पर्य हुआ "मैं"-बुद्धि।

श्लोक १७ में इसी धी पद का प्रयोग क्रमशः 

धिये (चतुर्थी, सम्प्रदान, एकवचन), 

धियः (षष्ठी, संबंध, एकवचन) तथा,

धियं  (द्वितीया, कर्म, एकवचन)

के अर्थ में किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि परमात्मा ने यद्यपि बुद्धि में अपना प्रकाश (चित् / चैतन्य) विकीर्ण किया, परन्तु स्वयं बुद्धि में गुप्त रूप से छिपा रहते हुए भी मनुष्य को बुद्धि के रूप में दिखलाई देता रहा। इसलिए हर मनुष्य परमात्मा को अपनी बुद्धि-विशेष के रूप में अनायास ही जानता भी है । व्यवहार में हर मनुष्य अपना उल्लेख करते स्वयं को "मैं" शब्द से व्यक्त करता है। यह है, "मैं" सर्वनाम का वाच्यार्थ। 

इसमें सन्देह नहीं कि इस नाम (या सर्वनाम) का हर किसी के लिए यद्यपि नितान्त निजी तात्पर्य होता है, उस दृष्टि से भी कोई इसे किसी अन्य के अर्थ में प्रयुक्त भी नहीं करता, किन्तु फिर भी यह भी सत्य है, कि किसी को इस पद / शब्द के प्रयोग से कभी कोई दुविधा भी नहीं होती है। ईश्वर-दृष्टि अर्थात् उस परमेश्वर के दर्शन करने के लिए यही पर्याप्त है, कि इस बहिर्मुखी बुद्धि को बाहर से हटाकर भीतर की दिशा में लौटाया जाए, और अपने अन्तर में ही संलग्न कर, इस प्रकार से ईश्वर का दर्शन कर लिया जाए।

श्लोक संख्या ७ में यह इंगित किया गया है कि बुद्धि और संसार एक ही साथ प्रकट और विलुप्त होते हैं, इसलिए यह कहा जाता है कि लोक / संसार का भान / अनुभव बुद्धि से ही होता है। इस प्रकार से, बुद्धि से ही संसार का जन्म और क्षय होता है, जबकि वह सद्वस्तु अर्थात् परमात्मा, जिससे बुद्धि को चैतन्य प्राप्त होता है, जन्म तथा क्षय से रहित पूर्ण और एकमेव है।

इस प्रकार बुद्धि ही वह द्वार है, जिसके एक ओर संसार व दूसरी ओर परमात्मा है। फिर भी यह बुद्धि ही परमात्मा का वह प्रत्यक्ष लक्षण है जो हमें सदैव प्रत्यक्षतः प्राप्त है। 

इस बुद्धि में ही चित् / चैतन्य चेतना के रूप में प्रतिबिम्बित होता है, और चित् / चैतन्य में ही बुद्धि की गतिविधि संभव होती है। अतः चैतन्य प्रथम / प्रधान है, और बुद्धि गौण है। इस प्रकार से, बुद्धि में प्रतिबिम्बित चैतन्य ही चेतना है।

इसी बुद्धि में ही पुनः अपने / अपनी आत्मा के सतत 'एक' होने का, और 'अनेक' न होने का स्वाभाविक निश्चय भी अनायास ही प्रत्येक प्राणी में होता ही है।

यह 'एक' ही 'अहं-पद' है ।

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अहं-पद विवेचन

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सर्वैर्निदानं जगतोऽहमश्च

वाच्यः प्रभुः कश्चिदपारशक्तिः ।

चित्रेऽत्र लोक्यं च विलोकिता च

पटः प्रकाशोप्यभवत्स एकः ।।१।।

आरभ्यते जीवजगत्परात्म-

तत्त्वाभिधानेन मतं समस्तम् ।

इदं त्रयं यावदहं-मतिः स्यात्

सर्वोत्तमाऽहं-मति-शून्य निष्ठा ।।२।।

तद्युष्मदोरस्मदि संप्रतिष्ठा

तस्मिन् विनष्टेऽस्मदि मूलबोधात् ।

तद्युष्मदस्मिन्मतिवर्जितैका

स्थितिर्ज्वलन्ती सहजात्मनः स्यात् ।।१४।।

न वक्ति देहोऽहमिति प्रसुप्तौ ...

धियाऽहमः शोधय जन्मदेशम् ।।२३।।

देहो न जानाति सतो न जन्म 

देहप्रमाणोऽन्य उदेति मध्ये ।

अहङ्कृति-ग्रन्थि-विबन्ध-सूक्ष्म

शरीर-चेतो-भव-जीवनामा ।।२४।।

रूपोद्भवो रुपतति प्रतिष्ठो

रूपाशनो धूतगृहीतरूपः ।

स्वयं विरूपः स्वविचार-काले

धावत्यहङ्कारपिशाच एषः ।।२५।।

भावेऽहमः सर्वमिदं विभाति

लयेऽहमो नैव विभाति किञ्चित् ।

तस्मादहंरूपमिदं समस्तं

तन्मार्गणे सर्वजयाय मार्गः ।।२६।।

सत्या स्थितिर्नाहमुदेति यत्र

तच्चोदयस्थान गवेषणेन ।

विना न नश्येद्यदि तन्न नश्येत्

स्वात्मैक्यरूपा कथमस्तु निष्ठा ।।२७।।

कूपे यथा गाढजले तथान्तः

निमज्ज्यबुद्ध्या शितया नितान्तम् ।

प्राणं च वाचं च नियम्य चिन्वन्

विन्देन्निजाहङ्कृतिमूलरूपम् ।।२८।।

मौनेन मज्जन्मनसा स्वमूल-

चर्चैव सत्यात्मविचारणं स्यात् ।

एषोऽहमेतन्न मम स्वरूप-

मिति प्रमा सत्यविचारणाङ्गम् ।।२९।।

गवेषणात्प्राप्य हृदन्तरं तत्

पतेदहन्ता परिभुग्नशीर्षा ।

अथाहमन्यत्स्फुरति प्रकृष्टम्

नाहङ्कृतिस्तत्परमेवपूर्णम् ।।३०।।

अहङ्कृतिं यो लसति ग्रसित्वा

किं तस्य कार्यं परिशिष्टमस्ति ।

किञ्चिद्विजानाति स नात्मनोऽन्यत् 

तस्य स्थितिं भावयितुं क्षमः कः।।।३१।।

न वेद्म्यहं मामुत वेद्म्यहं मा-

मिति प्रवादो मनुजस्य हास्यम् ।

दृग्दृश्यभेदात्किमयं द्विधात्मा

स्वात्मैकतायां हि धियां न भेदाः ।।३३।।

सोऽहंविचारो वपुरात्मभावे

साहाय्यकारी परमार्गणस्य ।

स्वात्मैक्यसिद्धौ स पुनर्निरर्थौ 

यथा नरत्वप्रमितिर्नरस्य  ।।३६।।

रूपिण्यरूपिण्युभयात्मिका च 

मुक्तिस्त्रिरूपेति विदो वदन्ति ।

इदं त्रयं या विविनक्त्यहंधीः

तस्या प्रणाशः परमार्थमुक्तिः ।।४०।।

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सद्दर्शनम् से उद्धृत उपरोक्त श्लोकों में अहं पद का प्रयोग कहीं कहीं उत्तम पुरुष एकवचन में, और कहीं अन्य पुरुष एकवचन में भी किया गया है। इस प्रकार अहं-पदार्थ का तात्पर्य सन्दर्भ के अनुसार स्वयं या यह / वह दोनों तरह से है।

उपदेश-सार में भी इस प्रकार से 'अहं'-पद का प्रयोग भिन्न भिन्न रूपों में दृष्टव्य है :

भेदभावनात्सोऽहमित्यसौ ।

भावनाऽभिदा पावनी मति ।।८।।

(मधुसूदन सरस्वती ने भक्ति के तीन भेद कहे हैं :

१ तस्य अहम् - मैं उसका हूँ। 

२ तवैवाहम् - मैं तुम्हारा हूँ। 

३ त्वमैवाहम् - तुम ही मैं हूँ।)

वृत्तयस्त्वहं-वृत्तिमाश्रिताः ।

वृत्तयो मनो विद्ध्यहं मनः ।।१८।।

अहमयं कुतो भवति चिन्वतः ।

अयि पतत्यहं निज-विचारणम् ।।१९।।

अहमि नाशभाज्यहमहन्तया ।

स्फुरति हृत्स्वयं परमपूर्ण सत् ।।२०।।

प्रश्न : अहम् का नाश हो जाने पर फिर अन्य अहम् का स्फुरण / भान कहाँ से होता है? 

उत्तर : वही वास्तविक अहम् है। अहन्ता व्यक्तित्व से भिन्न नहीं है। वह व्यक्तित्व, मनोगत तथा आत्मगत दो रूपों में हो सकता है -- जब अहम् भाव मनोगत होता है, तब आत्मा का अहम् भाव अप्रकट होता है, और जब इस मनोगत अहम् भाव की निवृत्तिहो जाती है तब आत्मा का निज अहम् भाव प्रकट हो उठता है। इसीलिए कहा गया है कि एक मनोगत अहम् भाव के मिट जाते ही हृदय स्वाभाविक 'अहम् अहम्' की तरह स्फुरित होता है। 

इदमहंपदाभिख्यमन्वहम् ।

अहमिलीनकेऽप्यलयसत्तया ।।२१।।

यह हृत्, जिसकी 'अहम् पद' अभिख्या है --अर्थात् जिसका बोध अहम् पद से होता है -- उसकी सत्ता, मनोमय अहंकार के नष्ट हो जाने पर भी लय नहीं होती । भाव यह है कि 'अहम् पद' मन के सन्दर्भ में गौण तथा आत्मा के सन्दर्भ में प्रधान रूप से प्रयुक्त होता है। जो अहम् पदार्थ है, वह आत्मा है यह सभी मानते हैं -- अर्थात् सभी अपने आपको आत्मा ही मानते हैं जिस पर अपने मन / शरीर आदि नाम रूप अज्ञानवश आरोपित कर लिए जाते हैं । यह आत्मा अर्थात् अहम् पदार्थ, वह अहंकार कदापि नहीं हो सकता, जिसका रूप सतत बदलता, बनता और मिटता रहता है । क्योंकि अहंकार के नष्ट होने पर भी आत्मा नष्ट नहीं होती, बल्कि अपने भान के रूप में स्फुरित ही रहती है। इस प्रकार से अन्वय-व्यतिरेक से भी यह  सिद्ध हो जाता है कि अहम् पद का प्रयोग, मन के सन्दर्भ में गौण रूप से, तथा आत्मा के सन्दर्भ में प्रधान रूप से किया जाता है।

प्रश्न : गौण कैसे और प्रधान कैसे? 

उत्तर : मन के सन्दर्भ में अहम् पद का प्रयोग गौण है, क्योंकि वहाँ आत्मा से संबंधित होने से मन को आत्मा मान लिया जाता है, जबकि आत्मा के सन्दर्भ में अहम् पद सत्ता के अर्थ में प्रयुक्त होता है, जिसका भान नित्य है। 

विग्रहेन्द्रियप्राणधीतमः ।

नाहमेकसत्तज्जडं ह्यसत् ।।२२।।

आत्मा के अर्थ में अहम् पद सत्ता / सत् का द्योतक है, जबकि शरीर, इन्द्रिय, प्राण तथा इन्द्रियों के विषय असत् / जड हैं । जो जड है उसकी नित्यता ही नहीं है तो वह आत्मा भी कैसे हो सकता है? 

सत्त्वभासिका चित्क्ववेतरा ।

सत्तया हि चिच्चित्तया ह्यहम्  ।।२३।।

इस अंतिम श्लोक में स्पष्ट किया गया है कि सत् और चित् एक ही आत्मा के दो पक्ष  aspects   हैं। 

चित् का अस्तित्व स्वप्रमाणित है, और अस्तित्व का अर्थ ही है सत्ता या विद्यमानता । इस प्रकार दोनों परस्पर अभिन्न हैं।

रमण गीता के चतुर्थ अध्याय में अहं पद को वृत्ति के अर्थ में प्रयुक्त करते हुए ग्रन्थकर्ता वासिष्ठ गणपति मुनि द्वारा भगवान् श्री रमण महर्षि से पूछा गया :

अहं ब्रह्मास्मीति वृत्तिः किं ज्ञानं मुनिकुञ्जर ।।

उत ब्रह्माहमिति धी र्धीरहं सर्वमित्युत ।।१।।

अथवा सकलं चैतद् ब्रह्मेति ज्ञानमुच्यते ।।

अस्माद्वृत्तिचतुष्काद्वा किं नु ज्ञानं विलक्षणम्।।२।।

इस पर भगवान् कहते हैं :

वृत्तयो भावना एव सर्वा एता न संशयः ।।

स्वरूपावस्थितिं शुद्धां ज्ञानमाहुर्मनीषिणः ।।४।।

पुनः एक नया प्रश्न उनके समक्ष रखा जाता है :

वृत्तिव्याप्यं भवेद्ब्रह्म न वा नाथ तपस्विनाम्  ।।

इमं मे हृदि सञ्जातं संशयं छेत्तुमर्हसि ।।५।।

इसके उत्तर में श्री रमण भगवान् कहते हैं :

स्वात्मभूतं यदि ब्रह्म ज्ञातुं वृत्तिः प्रवर्तते ।।

स्वात्माकारा तदा भूत्वा न पृथक् प्रतितिष्ठति ।।८।।

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किसी संभावित त्रुटि का आभास होने पर कृपया मूल ग्रन्थों का अवलोकन अवश्य करें।। 

।। शिवार्पणमस्तु।।

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